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NCERT Class 12 Sanskrit Chap 6 Sollution

NCERT Class 12 Sanskrit Shlok

Shlok - 1   स्वायत्तमेकान्तगुणंविधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः | विशेषतः सर्वविदां समाजे, विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ||  अर्थ स्वयं के अज्ञान को छिपाने के लिए ब्रह्मा (ईश्वर) ने सभी के लिए उपलब्ध एक गुण का निर्माण किया है और वह गुण मौन है। अज्ञान छिपानेके लिए मौन रूपी एक गुणरूपी आवरण बनाया है | विशेष कर ज्ञानियोंकी सभामें मूर्खोके लिए मौन अलंकार के समान है ।  संदेश इस श्लोक से एक बात शुद्ध रूप से मिलती है, कि जब हमें किसी भी वस्तु विशेष के परिप्रेक्ष्य में ज्ञान न हो, तो नहीं बोलना चाहिए |  Shlok - 2    रूपम् प्रसिद्धं न बुधास्तदाहु, विद्यावतां वस्तुत एव रूपम् | अपेक्षया रूपवतां हि विद्या, मानं लभन्तेतितरां जगत्यां ||   अर्थ :-  सुंदरता की इस संसार में बहुत प्रसिद्धि है, परंतु विद्वान लोग कहते हैं, कि ज्ञानी व्यक्तियों की सुंदरता तो विद्या है | क्योंकि इस संसार में रूप यानी सुंदर लोगों की अपेक्षा विद्यावान लोग अत्यधिक सम्मान को प्राप्त करते हैं |  संदेश :-  हर व्यक्ति को चाहे वह विद्यार्थी हो, कोई कर्मचारी हो, अध्यापक हो या फिर कोई अधिकारी हो सम्मान तभी पाता है, यदि वह विद्यावान हो । क्योंकि विद्या विनय देती है और विनय से निश्चित ही मनुष्य को समाज में प्रतिष्ठा या सम्मान मिलता है ।  Shlok - 3  न दुर्जनः सज्जनतामुपैति शठः सहस्त्रैपि शिक्ष्यमाणः | चिरं निमग्नोअपि सुधा - समुद्रे न मन्दरो मार्दवंभ्युपैति ||  अर्थ :-  हजारों विद्वानों के द्वारा सिखाया जाने पर भी दुर्जन व्यक्ति कभी भी सज्जनता को प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् सज्जन नहीं हो सकता | जैसे मदरांचल पर्वत बहुत समय तक अमृत के समुद्र में डूबे रहने पर भी मृदुता अर्थात् कोमलता को प्राप्त नहीं हो करता |  संदेश :-  किसी भी ऐसे व्यक्ति को ज्ञान कभी भी नही देना चाहिए या कुछ सीखना नहीं चाहिए, जो दुर्जन स्वभाव अर्थात नीच कर्म का व्यक्ति हो और सीखने की श्रद्धा न रखता हो ।  Shlok - 4   कर्णामृतं सुक्तिरसं विमुच्य दोषेषु यत्नः समुहान खलानां | निरीक्षते केलिवनं प्रविश्य क्रमेलकः कण्टकजालमेव ||  अर्थ :-  कानों को अमृत के समान लगने वाले सुंदर वचन रूपी रस को छोड़कर दुर्जन व्यक्तियों का दोषों में ही अधिक यत्न रहता है अर्थात् वे गलत कार्यों को करने एवम सुनने में ही अपने आप को लगाते हैं | जैसे कोई ऊंट आमोद प्रमोद के सुंदर वन में प्रवेश करने पर भी कांटों की झाड़ियों का ही निरीक्षण करता है अर्थात् उनको ढूंढता है |  संदेश :-  जिस व्यक्ति को जो अच्छा लगता है वह व्यक्ति उसी के लिए ही प्रयत्न करता है अर्थात उसी को पाने को इच्छा रखता है ।  Shlok - 5  उत्साह - संपन्नदीर्घसूत्रं क्रीयाविधिज्ञं व्यस्नेष्वसक्तम् | शूरं कृतज्ञं दृढसौहृदञ्च लक्ष्मी स्वयं याति निवासहेतोः ||  अर्थ :-  जो उत्साह से संपन्न है, जो अपने कार्यों को बहुत ही शीघ्रता से करता है, जो कार्यों को करने की विधि को जानने वाला है, जो बुरी आदतों में नहीं फंसा है | जो किसी के द्वारा किए गए उपकार को मानता है, जो दृढ़ मित्रता रखने वाला है, ऐसे ही व्यक्ति के पास ही लक्ष्मी स्वयं निवास के लिए आती हैं |  संदेश :- ऐसा व्यक्ति जो अपने भले - बुरे को जानने वाला है, समझने वाला है और अपनी कमियों और शक्तियों का सही रूप से विश्लेषण कर अपने कार्यों अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हेतु करने वाला है उसी व्यक्ति को सुख और शान्ति की प्राप्ति हो सकती है और वही व्यक्ति धनवान भी हो सकता है ।  Shlok - 6  दीर्घ प्रयासेन कृतं हि वस्तु निमेषमात्रेण भजेद् विनाशम् | कर्तुं कुलास्य तु वर्षमेकं भेत्तुं हि दण्डस्य मुहूर्तमात्रम् ||  अर्थ :-  लंबे प्रयास से निर्माण की गई वस्तु भी क्षण भर में ही विनाश को प्राप्त हो जाती है | जिस कार्य को करने के लिए कुम्हार को एक वर्ष लगता है अर्थात् जिस बर्तन को बनाने में कुम्हार को एक वर्ष लग जाता है, उसी (बर्तन) को तोड़ने में डंडे को क्षण भर ही लगता है |  संदेश :-  इस श्लोक में कर्म को प्रधानता देने के साथ साथ इस बात की ओर भी संकेत किया गया है, कि इस संसार में सभी वस्तुएं नशवान हैं अर्थात किसी भी वस्तु के जीवनकाल की कोई सीमा नहीं है ।अतः हर व्यक्ति को केवल कर्म पर ध्यान देना चाहिए ।  दूसरी ओर इस श्लोक के माध्यम से ये शिक्षा भी दी गई है, कि हमे अपने कर्मों को अंधा होकर नही करना चाहिए और अपने आप को किसी ओर के अधीन नही करके उसे खुद को सौंपना नहीं चाहिए क्योंकि यदि हम ऐसा करते हैं, तो हमारा हाल भी कुम्हार के उस घड़े की तरह ही होगा ।  Shlok - 7    आरभेत हि कर्माणि श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः | कर्माण्यारभमाणं हि पुरुषं श्रीनिषेवते |  अर्थ बार - बार थकने पर भी निश्चय ही बार - बार कार्य को आरंभ करना चाहिए | क्योंकि कार्य को आरंभ अर्थात् शुरू करने वाले पुरुष को ही लक्ष्मी (सुख - संपत्ति) स्वयं प्राप्त होती हैं ।  संदेश बार - बार असफलता हाथ लगने पर भी हर व्यक्ति को फिर से पूरी निष्ठा, जोश और ईमानदारी के साथ पुनः उसी काम में लग जाना चाहिए । यदि बार बार ऐसा किया जाता है, तो निश्चित ही एक दिन सफलता मिलती है और कार्य में सफलता से ही निश्चित रूप से सुख और शांति मिलती है ।  उदाहरण  यदि कोई विद्यार्थी किसी परीक्षा की तैयारी कर रहा है, और वह बार बार उस परीक्षा में असफल हो जा रहा है, लेकिन बार बार असफल होने के बाद भी वह पुनः लगन के साथ पढ़ाई में जुट जाता है और पढ़ता रहा है, तो निश्चित ही एक दिन वह उस निर्धारित परीक्षा में पास हो जायेगा अर्थात् सफलता प्राप्त करेगा । सफलता के बाद उसे समाजिक प्रतिष्ठा, धन और बहुत सारी खुशियां भी मिलेंगी जिससे वह अपने आप को भाग्यशाली समझेगा ।  इसके परिप्रेक्ष्य में कबीरदास भी कहते हैं, कि  करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान । रसर  आवत जात ते, सिल पर परत निशान ।।  Shlok - 8  एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना | आहादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी ||  अर्थ :-  एक भी विद्यावान एवम सज्जन पुत्र से संपूर्ण कुल प्रसन्न हो जाता है अर्थात सुख को प्राप्त करता है | जैसे चंद्रमा से रात्रि |  संदेश यदि किसी कुल अर्थात् खानदान में कोई एक भी ऐसा पुत्र हो जो विद्यावान हो तो वह अपनी विद्या शक्ति से अपने माता पिता सहित संपूर्ण खानदान का मान - सम्मान उच्च शिखर तक ले जाता है । अर्थात् उसके ज्ञान से खानदान की प्रतिष्ठा बढ़ती है । ऐसा पुत्र रात में निकले चंद्रमा की तरह है, जिसके निकलने से चारो तरफ उजाला हो जाता है ।  संक्षेप रूप में समझा जा सकता है, कि विद्या मानव जीवन के निर्वाह के लिए अति आवश्यक है ।  Shlok - 9   अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम् | भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषापहं ||  अर्थ :-  भोजन के न पचने पर जल औषधि का काम करता है | भोजन के पच जाने पर जल बल को प्रदान करने वाला है |भोजन करते समय जल अमृत के समान है और भोजन के अंत में जल विष के दूर करने वाला होता है ।  संदेश  हर व्यक्ति को भोजन को करते समय उपरोक्त श्लोक में कही गई बातों का अनुसरण अवश्य करना चाहिए । यदि ऐसा किया जाए, तो निश्चित ही हमारा शरीर स्वस्थ रहेगा और यदि शरीर स्वस्थ होगा तभी हम अपने निर्धारित कार्यों को करके अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेंगे ।  Shlok - 10  अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् | सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ||  अर्थ :-  पूरे संसार के नेत्र स्वरूप शास्त्र ही अनेक संशयों को दूर करने वाला, जो परोक्ष है अर्थात् आंखों से सामने नहीं है उसको भी बताने वाला | जिसके पास यह नहीं है अर्थात जिसे शास्त्र का ज्ञान नहीं है वह अवश्य ही अंधे के समान है ।  संदेश भारतीय शास्त्र विधान में लगभग सभी प्रकार के प्रश्नों का हल है, यदि कोई व्यक्ति शास्त्रों का ज्ञान रखता है, तो वह सही और गलत में भेद करके एक सुखी जीवन जी सकता है और सभी कमतर बुद्धि वाले व्यक्तियों को भी अपने ज्ञान के प्रकाश से निर्मल कर सकता है । अतः शास्त्रों का ज्ञान मानव जीवन के लिए अति आवश्यक है ।  Shlok - 11  अल्पज्ञ एव पुरुषः प्रलपत्यजस्त्रम्, पाण्डित्यसम्भृतमातिस्तु मितप्रभाषी | कास्यं यथा हि कुरुतेतितरां निनादं, तद्वित सुवर्णमिह नैप करोति नादम् ||  अर्थ :-  जिस प्रकार कांसा जो कम मूल्य वाला है वह अत्यधिक निनाद अर्थात आवाज करता है लेकिन सोना अधिक मूल्यवान होने के कारण ज्यादा आवाज नहीं करता | ठीक उसी प्रकार कम जानने वाला व्यक्ति ही वह ही निरंतर बोलता रहता है | लेकिन जिसकी बुद्धि पांडित्य से युक्त होती है अर्थात् जो विद्वान होता है वह कम बोलने वाला होता है अर्थात् वह बहुत ज्यादा नहीं बोलता ।  संदेश  जो ज्ञानी पुरुष हैं, वो हमेशा कम और बढ़िया बोलते हैं, वे जब भी अपना मुख खोलते हैं, प्रेम ही प्रसारित होता है । ऐसा करने से उन्हें प्रसिद्धि भी मिलती है और सबका प्रेम भी लेकिन वे कभी इस बात का घमंड नहीं करते । दूसरी ओर जो अज्ञानी हैं, वे हमेशा गलत कार्यों में उलझने रहते हैं, और अपने आप को अज्ञानवश बड़ा समझकर अपना प्रदर्शन करते रहते हैं ।  🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆  © व्याख्या :- कवि आशीष उपाध्याय "एकाकी"  🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆NCERT Class 12 Sanskrit Chap 6 Sollution, ncert solutions for class 6 sanskrit chapter 12, ncert class 6 sanskrit chapter 12 pdf, ncert class 12 sansk
NCERT Class 12 Sanskrit shlok



Shlok - 1 

स्वायत्तमेकान्तगुणंविधात्रा
विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः |
विशेषतः सर्वविदां समाजे,
विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ||

अर्थ
स्वयं के अज्ञान को छिपाने के लिए ब्रह्मा (ईश्वर) ने सभी के लिए उपलब्ध एक गुण का निर्माण किया है और वह गुण मौन है। अज्ञान छिपानेके लिए मौन रूपी एक गुणरूपी आवरण बनाया है | विशेष कर ज्ञानियोंकी सभामें मूर्खोके लिए मौन अलंकार के समान है ।

संदेश
इस श्लोक से एक बात शुद्ध रूप से मिलती है, कि जब हमें किसी भी वस्तु विशेष के परिप्रेक्ष्य में ज्ञान न हो, तो नहीं बोलना चाहिए |

Shlok - 2 


रूपम् प्रसिद्धं न बुधास्तदाहु,
विद्यावतां वस्तुत एव रूपम् |
अपेक्षया रूपवतां हि विद्या,
मानं लभन्तेतितरां जगत्यां ||

 अर्थ :- 
सुंदरता की इस संसार में बहुत प्रसिद्धि है, परंतु विद्वान लोग कहते हैं, कि ज्ञानी व्यक्तियों की सुंदरता तो विद्या है | क्योंकि इस संसार में रूप यानी सुंदर लोगों की अपेक्षा विद्यावान लोग अत्यधिक सम्मान को प्राप्त करते हैं |

संदेश :- 
हर व्यक्ति को चाहे वह विद्यार्थी हो, कोई कर्मचारी हो, अध्यापक हो या फिर कोई अधिकारी हो सम्मान तभी पाता है, यदि वह विद्यावान हो । क्योंकि विद्या विनय देती है और विनय से निश्चित ही मनुष्य को समाज में प्रतिष्ठा या सम्मान मिलता है ।

Shlok - 3

न दुर्जनः सज्जनतामुपैति शठः सहस्त्रैपि शिक्ष्यमाणः |
चिरं निमग्नोअपि सुधा - समुद्रे न मन्दरो मार्दवंभ्युपैति ||

अर्थ :- 
हजारों विद्वानों के द्वारा सिखाया जाने पर भी दुर्जन व्यक्ति कभी भी सज्जनता को प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् सज्जन नहीं हो सकता | जैसे मदरांचल पर्वत बहुत समय तक अमृत के समुद्र में डूबे रहने पर भी मृदुता अर्थात् कोमलता को प्राप्त नहीं हो करता |

संदेश :- 
किसी भी ऐसे व्यक्ति को ज्ञान कभी भी नही देना चाहिए या कुछ सीखना नहीं चाहिए, जो दुर्जन स्वभाव अर्थात नीच कर्म का व्यक्ति हो और सीखने की श्रद्धा न रखता हो ।

Shlok - 4 

कर्णामृतं सुक्तिरसं विमुच्य दोषेषु यत्नः समुहान खलानां |
निरीक्षते केलिवनं प्रविश्य क्रमेलकः कण्टकजालमेव ||

अर्थ :- 
कानों को अमृत के समान लगने वाले सुंदर वचन रूपी रस को छोड़कर दुर्जन व्यक्तियों का दोषों में ही अधिक यत्न रहता है अर्थात् वे गलत कार्यों को करने एवम सुनने में ही अपने आप को लगाते हैं | जैसे कोई ऊंट आमोद प्रमोद के सुंदर वन में प्रवेश करने पर भी कांटों की झाड़ियों का ही निरीक्षण करता है अर्थात् उनको ढूंढता है |

संदेश :- 
जिस व्यक्ति को जो अच्छा लगता है वह व्यक्ति उसी के लिए ही प्रयत्न करता है अर्थात उसी को पाने को इच्छा रखता है ।

Shlok - 5

उत्साह - संपन्नदीर्घसूत्रं क्रीयाविधिज्ञं व्यस्नेष्वसक्तम् |
शूरं कृतज्ञं दृढसौहृदञ्च लक्ष्मी स्वयं याति निवासहेतोः ||

अर्थ :- 
जो उत्साह से संपन्न है, जो अपने कार्यों को बहुत ही शीघ्रता से करता है, जो कार्यों को करने की विधि को जानने वाला है, जो बुरी आदतों में नहीं फंसा है | जो किसी के द्वारा किए गए उपकार को मानता है, जो दृढ़ मित्रता रखने वाला है, ऐसे ही व्यक्ति के पास ही लक्ष्मी स्वयं निवास के लिए आती हैं |

संदेश :-
ऐसा व्यक्ति जो अपने भले - बुरे को जानने वाला है, समझने वाला है और अपनी कमियों और शक्तियों का सही रूप से विश्लेषण कर अपने कार्यों अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हेतु करने वाला है उसी व्यक्ति को सुख और शान्ति की प्राप्ति हो सकती है और वही व्यक्ति धनवान भी हो सकता है ।

Shlok - 6

दीर्घ प्रयासेन कृतं हि वस्तु निमेषमात्रेण भजेद् विनाशम् |
कर्तुं कुलास्य तु वर्षमेकं भेत्तुं हि दण्डस्य मुहूर्तमात्रम् ||

अर्थ :- 
लंबे प्रयास से निर्माण की गई वस्तु भी क्षण भर में ही विनाश को प्राप्त हो जाती है | जिस कार्य को करने के लिए कुम्हार को एक वर्ष लगता है अर्थात् जिस बर्तन को बनाने में कुम्हार को एक वर्ष लग जाता है, उसी (बर्तन) को तोड़ने में डंडे को क्षण भर ही लगता है |

संदेश :- 
इस श्लोक में कर्म को प्रधानता देने के साथ साथ इस बात की ओर भी संकेत किया गया है, कि इस संसार में सभी वस्तुएं नशवान हैं अर्थात किसी भी वस्तु के जीवनकाल की कोई सीमा नहीं है ।अतः हर व्यक्ति को केवल कर्म पर ध्यान देना चाहिए ।

दूसरी ओर इस श्लोक के माध्यम से ये शिक्षा भी दी गई है, कि हमे अपने कर्मों को अंधा होकर नही करना चाहिए और अपने आप को किसी ओर के अधीन नही करके उसे खुद को सौंपना नहीं चाहिए क्योंकि यदि हम ऐसा करते हैं, तो हमारा हाल भी कुम्हार के उस घड़े की तरह ही होगा ।

Shlok - 7 


आरभेत हि कर्माणि श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः |
कर्माण्यारभमाणं हि पुरुषं श्रीनिषेवते |

अर्थ
बार - बार थकने पर भी निश्चय ही बार - बार कार्य को आरंभ करना चाहिए | क्योंकि कार्य को आरंभ अर्थात् शुरू करने वाले पुरुष को ही लक्ष्मी (सुख - संपत्ति) स्वयं प्राप्त होती हैं ।

संदेश
बार - बार असफलता हाथ लगने पर भी हर व्यक्ति को फिर से पूरी निष्ठा, जोश और ईमानदारी के साथ पुनः उसी काम में लग जाना चाहिए । यदि बार बार ऐसा किया जाता है, तो निश्चित ही एक दिन सफलता मिलती है और कार्य में सफलता से ही निश्चित रूप से सुख और शांति मिलती है ।

उदाहरण 
यदि कोई विद्यार्थी किसी परीक्षा की तैयारी कर रहा है, और वह बार बार उस परीक्षा में असफल हो जा रहा है, लेकिन बार बार असफल होने के बाद भी वह पुनः लगन के साथ पढ़ाई में जुट जाता है और पढ़ता रहा है, तो निश्चित ही एक दिन वह उस निर्धारित परीक्षा में पास हो जायेगा अर्थात् सफलता प्राप्त करेगा । सफलता के बाद उसे समाजिक प्रतिष्ठा, धन और बहुत सारी खुशियां भी मिलेंगी जिससे वह अपने आप को भाग्यशाली समझेगा ।

इसके परिप्रेक्ष्य में कबीरदास भी कहते हैं, कि

करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान ।
रसर  आवत जात ते, सिल पर परत निशान ।।

Shlok - 8

एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना |
आहादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी ||

अर्थ :- 
एक भी विद्यावान एवम सज्जन पुत्र से संपूर्ण कुल प्रसन्न हो जाता है अर्थात सुख को प्राप्त करता है | जैसे चंद्रमा से रात्रि |

संदेश
यदि किसी कुल अर्थात् खानदान में कोई एक भी ऐसा पुत्र हो जो विद्यावान हो तो वह अपनी विद्या शक्ति से अपने माता पिता सहित संपूर्ण खानदान का मान - सम्मान उच्च शिखर तक ले जाता है । अर्थात् उसके ज्ञान से खानदान की प्रतिष्ठा बढ़ती है । ऐसा पुत्र रात में निकले चंद्रमा की तरह है, जिसके निकलने से चारो तरफ उजाला हो जाता है ।

संक्षेप रूप में समझा जा सकता है, कि विद्या मानव जीवन के निर्वाह के लिए अति आवश्यक है ।

Shlok - 9 

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम् |
भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषापहं ||

अर्थ :- 
भोजन के न पचने पर जल औषधि का काम करता है | भोजन के पच जाने पर जल बल को प्रदान करने वाला है |भोजन करते समय जल अमृत के समान है और भोजन के अंत में जल विष के दूर करने वाला होता है ।

संदेश 
हर व्यक्ति को भोजन को करते समय उपरोक्त श्लोक में कही गई बातों का अनुसरण अवश्य करना चाहिए । यदि ऐसा किया जाए, तो निश्चित ही हमारा शरीर स्वस्थ रहेगा और यदि शरीर स्वस्थ होगा तभी हम अपने निर्धारित कार्यों को करके अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेंगे ।

Shlok - 10

अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् |
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ||

अर्थ :- 
पूरे संसार के नेत्र स्वरूप शास्त्र ही अनेक संशयों को दूर करने वाला, जो परोक्ष है अर्थात् आंखों से सामने नहीं है उसको भी बताने वाला | जिसके पास यह नहीं है अर्थात जिसे शास्त्र का ज्ञान नहीं है वह अवश्य ही अंधे के समान है ।

संदेश
भारतीय शास्त्र विधान में लगभग सभी प्रकार के प्रश्नों का हल है, यदि कोई व्यक्ति शास्त्रों का ज्ञान रखता है, तो वह सही और गलत में भेद करके एक सुखी जीवन जी सकता है और सभी कमतर बुद्धि वाले व्यक्तियों को भी अपने ज्ञान के प्रकाश से निर्मल कर सकता है । अतः शास्त्रों का ज्ञान मानव जीवन के लिए अति आवश्यक है ।

Shlok - 11

अल्पज्ञ एव पुरुषः प्रलपत्यजस्त्रम्,
पाण्डित्यसम्भृतमातिस्तु मितप्रभाषी |
कास्यं यथा हि कुरुतेतितरां निनादं,
तद्वित सुवर्णमिह नैप करोति नादम् ||

अर्थ :- 
जिस प्रकार कांसा जो कम मूल्य वाला है वह अत्यधिक निनाद अर्थात आवाज करता है लेकिन सोना अधिक मूल्यवान होने के कारण ज्यादा आवाज नहीं करता | ठीक उसी प्रकार कम जानने वाला व्यक्ति ही वह ही निरंतर बोलता रहता है | लेकिन जिसकी बुद्धि पांडित्य से युक्त होती है अर्थात् जो विद्वान होता है वह कम बोलने वाला होता है अर्थात् वह बहुत ज्यादा नहीं बोलता ।

संदेश 
जो ज्ञानी पुरुष हैं, वो हमेशा कम और बढ़िया बोलते हैं, वे जब भी अपना मुख खोलते हैं, प्रेम ही प्रसारित होता है । ऐसा करने से उन्हें प्रसिद्धि भी मिलती है और सबका प्रेम भी लेकिन वे कभी इस बात का घमंड नहीं करते ।
दूसरी ओर जो अज्ञानी हैं, वे हमेशा गलत कार्यों में उलझने रहते हैं, और अपने आप को अज्ञानवश बड़ा समझकर अपना प्रदर्शन करते रहते हैं ।

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© व्याख्या :- कवि आशीष उपाध्याय "एकाकी"

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