भगवतगीता - अध्याय 1 हिन्दी में
पहला अध्याय जहां बहुत ही प्रश्नपूर्ण है, वहीं एक सटीक संदेश भी है, कि हर व्यक्ति को अपने कर्मों का अर्थात लक्ष्य का निर्धारण करने से पहले किन - किन बातों का ध्यान रखना चाहिए |
धृतराष्ट्र ने कहा -
हे संजय! धर्म-भूमि और कर्म-भूमि में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे पुत्रों और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
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दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा :-
हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा सुसज्जित पाण्डु पुत्रों की इस भयंकर सेना को देखिए |
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भगवतगीता - अध्याय 1, श्लोक 4
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा :-
इस युद्ध में भीम तथा अर्जुन के समान अनेकों महान शूरवीर और धनुर्धर है, युयुधान, विराट और द्रुपद जैसे महान महारथी योद्धा भी हैं |
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भगवतगीता - अध्याय 1, श्लोक 5
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा :-
धृष्टकेतु, चेकितान तथा काशीराज जैसे महान शक्तिशाली और पुरुजित्, कुन्तीभोज तथा मनुष्यों मे श्रेष्ठ शैब्य जैसे योद्धा भी हैं |
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युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा :-
युधामन्यु जैसे महान पराक्रमी तथा उत्तमौजा जैसे अत्यन्त शक्तिशाली, सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पुत्रों सहित ये सभी महान योद्धा (पांडवों की सेना में) हैं।
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अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा :-
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! हमारी तरफ़ के भी उन सभी विशेष शक्तिशाली योद्धाओं को जान लीजिये | आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के उन योद्धाओं के बारे में मैं आपको बतलाता हूँ।
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भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा :-
मेरी सेना में स्वयं आप-(द्रोणाचार्य), पितामह भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा जैसे योद्धा है, जो सदैव युद्ध क्षेत्र में विजयी रहे हैं।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा :-
ऎसे अन्य बहुत सारे शूरवीर भी हैं, जो मेरे लिये अपने जीवन का बलिदान देनें के लिए अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हैं और ये सभी युद्ध-कला में निपुण है ।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा :-
इस प्रकार भीष्म पितामह द्वारा संरक्षित हमारी यह सेना सभी प्रकार से अजेय अर्थात ऐसी है जिसे जितना सुगम (आसान) नहीं है और भीम द्वारा संरक्षित उन लोगों (पांडवों) की वह सेना सभी प्रकार से जितने में सुगम है अर्थात् उसे जीता जा सकता है |
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥
दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा :-
इसलिए सभी मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित होकर आप सभी निश्चित रूप से भीष्म पितामह की सभी तरफ से रक्षा करें ।
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तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा :-
तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम-प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए सिंह-गर्जना के समान उच्च स्वर में शंख बजाया।
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ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा :-
तत्पश्चात् अनेक शंख, नगाड़े, ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे अचानक एक साथ बज उठे | उनका वह शब्द बड़ा भयंकर था।
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ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा :-
तत्पश्चात् दूसरी तरफ सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ पर आसीन योगेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ने भी अलौकिक शंख बजाए।
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पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः ॥
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा :-
श्रीकृष्ण जी ने "पाञ्चजन्य" नामक, अर्जुन ने "देवदत्त" नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने "पौण्ड्र" नामक महाशंख बजाया।
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अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा :-
हे राजन! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने "अनन्तविजय" नामक और नकुल तथा सहदेव ने "सुघोष" और "मणिपुष्पक" नामक शंख बजाए।
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काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा :-
श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और कभी परास्त न होने वाले सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु आदि सभी ने अलग-अलग शंख बजाये।
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स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा :-
उस (शंख) भयंकर ध्वनि ने आकाश और पृथ्वी को गुंजायमान करते हुए धार्तराष्ट्रों यानी आपके पक्षवालों के हृदय में शोक उत्पन्न कर दिया।
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अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ (20)
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ (21)
संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं कि....
हे राजन् ! इसके बाद हनुमान जी से अंकित पताका लगे रथ पर आसीन पाण्डु पुत्र अर्जुन ने धनुष उठाकर तीर चलाने की तैयारी के समय धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर हृदय के सर्वस्व ज्ञाता श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहा कि हे अच्युत! कृपा करके मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खडा़ करें।
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यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥
अर्जुन श्रीकृण से कहते हैं कि....
(हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कीजिए) :- 21वें श्लोक से....
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जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार से देख न लूँ, कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए |
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योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥
अर्जुन श्रीकृण से कहते हैं कि....
जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार से देख न लूँ, कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए | 22वें श्लोक से
.......................................................
मैं उनको भी देख सकूँ, जो ये राजा लोग यहाँ पर धृतराष्ट् के दुर्बुद्धि पुत्र दुर्योधन के हित की इच्छा से युद्ध करने के लिये एकत्रित हुए हैं।
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एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥
संजय, धृतराष्ट्र से कहते हैं कि....
हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृदय के पूर्ण ज्ञाता श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उत्तम रथ को खड़ा कर दिया।
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भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥
संजय, धृतराष्ट्र से कहते हैं कि....
हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृदय के पूर्ण ज्ञाता श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उत्तम रथ को खड़ा कर दिया। (श्लोक 24 से)
और इस प्रकार भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण तथा संसार के सभी राजाओं के सामने कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए एकत्रित हुए इन सभी कौरवों को देख।
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तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥
संजय, धृतराष्ट्र से कहते हैं कि....
वहाँ (युद्ध क्षेत्र में) पृथापुत्र अर्जुन ने अपने ताऊओं-चाचाओं को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को और मित्रों को देखा ।
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श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥
संजय, धृतराष्ट्र से कहते हैं कि....
वहाँ (युद्ध क्षेत्र में) कुन्ती-पुत्र अर्जुन ने ससुरों को और शुभचिन्तकों सहित दोनों तरफ़ की सेनाओं में अपने ही सभी सम्बन्धियों को देखा।
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कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ।
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥
संजय, धृतराष्ट्र से कहते हैं कि....
तब करुणा से अभिभूत होकर शोक करते हुए अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा वाले इन सभी मित्रों तथा सम्बन्धियों को उपस्थित देखकर ..........
अगले श्लोक में
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सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
मेरे शरीर के सभी अंग काँप रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है, और मेरे शरीर के कम्पन से रोमांच उत्पन्न हो रहा है ।
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गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
मेरे हाथ से गांडीव धनुष छूट रहा है और त्वचा भी जल रही है, मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा भी नही रह पा रहा हूँ ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता ||
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न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न ही राज्य और न सुखों को ही ! हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ?
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येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि की इच्छा है, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥
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आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥
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भगवतगीता - अध्याय 1, श्लोक 35
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
हे मधुसूदन ! मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूँ, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें, तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है |
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निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन |
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ||
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी? बल्कि इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।
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भगवतगीता - अध्याय 1, श्लोक 37
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
इसलिए हे माधव ! अपने ही बान्धव (भाई) धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ?
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यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ (38)
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ (39)
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए ?
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कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥
अर्जुन, कौरव सेना के सभी योद्धाओं के देखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म फैल जाता है |
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अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥
अर्जुन, श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
हे कृष्ण ! अधर्म अर्थात् पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर संतानें उत्पन्न होती हैं |
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भगवतगीता - अध्याय 1, श्लोक 42
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥
अर्जुन, श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
वर्णसंकर कुलघातियों का जन्म कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को ही प्राप्त होते हैं |
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दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥
अर्जुन, श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
इन वर्णसंकरकारक दोषों से युक्त कुलघातियों से सनातन (प्राचीन) कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं |
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उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥
अर्जुन, श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
हे जनार्दन ! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है अर्थात् उन्हें नरक में रहना पड़ता है, ऐसा हम सुनते आए हैं ।
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अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥
अर्जुन, श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
हा ! शोक ! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सभी लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं ।
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यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥
अर्जुन, श्रीकृष्ण से कहते हैं कि........
यदि मुझ शस्त्र-रहित विरोध न करने वाले को, धृतराष्ट्र के पुत्र हाथ में शस्त्र लेकर युद्ध में मार डालें तो भी इस प्रकार मरना मेरे लिए अधिक श्रेयस्कर होगा ।
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एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा.......
रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणोंसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए |
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-भगवतगीता, अध्याय 1
संस्कृत में, हिन्दी अर्थ एवं व्याख्या सहित
कवि आशीष उपाध्याय ' एकाकी '
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
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