सुनहरा बचपन -खट्टी मीठी यादों का सफर
(Short story in Hindi - Sunahara Bachpan)
About this Story
"सुनहरा बचपन "
कवि आशीष उपाध्याय के द्वारा रचित एक मार्मिक कहानी है | जिसमें कवि के द्वारा एक युवक के मनोभावों को पढ़ने और उसे लिखने का प्रयत्न किया गया है | कि, एक युवक अपने बचपन को किस प्रकार याद करता है |
कहानी का प्रथम भाग इस प्रकार से है............
आज जब मैं पीछे मुड़के देखता हूँ, तो लगता है, जैसे कि कितना कुछ छूट गया मेरा जीवन के इस खेल-खेल में और मैं अब भी अपनी नसीब को कोस रहा हूँ |
आज तो मुझे ऐसे लगा , जैसे कि माँ स्कूल का टिफिन लिए मेरे पीछे पागलों की तरह भाग रही हो और मैं अपनी ज़िद्द में हूँ कि आज तो कुछ भी हो जाये टिफिन तो ले जाऊंगा ही नहीं | इतने में माँ ने पापा को ये कमान सौप दिया, कि आप अपने लाडले को टिफिन दे के भेजो | पापा ने अपनी भूरे रंग की पैंट की जेब से २ रुपये निकाला और बोले ! मैं तेरा पापा हूँ, ना तो मेरी बात मान लो बेटा और मैंने क्या सिखाया था तुम्हें,कि कभी भी अम्मा को परेशान नहीं करते, क्योकि यदि अम्मा नाराज हो जाएगी, तो तुम्हे बेटा कौन कहेगा ? तुम्हें नहलायेगा कौन ? तुम्हे खाना कौन खिलायेगा ?
पापा के इतना कहते ही मैं रोने लगा और दो रुपये चमकता सिक्का बाएं हाथ की मुट्ठी में बंद कर लिया | दोनों हाथों से आँखों को मिझते रो ही रहा था, कि माँ ने आके मुझे सीने से लगा लिया और अपने आंचल से मेरे सारे दर्द पोछ दिए | अब मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था, कि मैं तीनो लोकों के सबसे खूबसूरत और सुरक्षित घर में हूँ, माँ की गोद में बैठके के मैं अपने आप को सबसे भाग्यशाली समझ रहा था |
फिर माँ ने अपने दाहिनें हाथ की उँगलियों से मेरे सिर को सहलाते हुए बोली - बेटा ! अबतुम स्कूल जाओ ! तुम्हे बड़ा होके बहुत बड़ा आदमी बनना है, ना | तुम बहुत अच्छे बाबू हो | अब स्कूल जाओ !
मैं खिलखिलाते हुए माँ की गोद से उतरा और दो रुपये के सिक्के को बाएं जेब में रखा, टिफिन को बैग में रखा और माँ, पापा का आशीष लेके फुर्र से दौड़ के स्कूल जाने लगा | माँ ने कहा बेटा संभल के जाना और पापा ने कहा - मेरा बेटा है | संभल के ही जाएगा |
© कवि आशीष उपाध्याय "एकाकी"
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
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