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कैकेयी का अनुताप-साकेत -राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (Kaikeyi ka anutap -Saket- Maithilisharan Gupt)

कैकेयी का अनुताप-साकेत -राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
 (Kaikeyi ka anutap -Saket- Maithilisharan Gupt)

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About 
"कैकेयी का अनुताप" राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की विश्व प्रसिद्द रचना "साकेत" से लिया गया है | जिसमें अयोध्या की महारानी कैकेयी के द्वारा श्री राम जी को वनवास भेजने का वर राजन दशरथ से मांगने के उपरांत मन में उठे विषाद को पश्चाताप का रूप देकर इसकी रचना की गई है | "कैकेयी का अनुताप" साकेत का एक अंश मात्र है | 

 तदन्तर बैठी सभा उटज के आगे,
नीले वितान के तले द्वीप बहु जागे |
टकटकी लगाए नयन सुरों के थे वे,
परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे |

उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह रहकर,
करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह महकर |
वह चंद्रलोक था, कहा चाँदनी वैसी,
प्रभु बोले गिरा गभीर नीरनिधि जैसी |

"हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना",
सब सजग हो गए, भंग हुआ ज्यों सपना |
"हे आर्य, रहा क्या भरत अभीप्सित अब भी ?
मिल गया अकंटक राज्य उसे जब, तब भी ?

पाया तुमने तरु-तले अरण्य बसेरा,
रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा ?
तन तड़प तड़पकर तप्त तात ने त्यागा,
क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा ?

हा ! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,
निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा |
अब कौन अभीप्सित और आर्य, वह किसका ?
संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका |

मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा,
हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा ?"

प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा,
 रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सिंचा !
"उसके आशय ही थाह मिलेगी किसको ?
जनकर जननी ही जान न पाई जिसको ?"

"यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।"
चौके सब सुनकर अटल कैकेयी-स्वर को।
सबने रानी  की ओर अचानक देखा,
वैधव्य-तुषारावृता यथा असंख्यतरंगा,
वह सिंही अब थी हहा! गोमुख गंगा-

"हाँ, जनकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुन लें, तुमने स्वयं अभी यह माना।
यह सच है तो फिर लौट चलो घर अब भैया,
अपराधिन  मैं हूँ तात, तुम्हारी मैया।
दुर्बलता का ही चिन्ह विशेष शपथ है,
पर, अबलाजन के लिए कौन सा पथ है ?
यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊं,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोऊँ।
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो।
पाओ यदि उसमे सार उसे सब चुन लो |
करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ ?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ ?"

थी सनक्षत्र शशि-निशा ओस टपकाती,
रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती।
उल्का-सी रानी दिशा दीप्त करती थी,
सबमें भय-विस्मय और खेद भरती थी।

"क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी,
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।
जल पंजर-गत अब अरे अधीर, अभागे,
वे ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे।

पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में ?
क्या शेष बचा था कुछ न और इस मन में ?
कुछ नहीं वात्सल्य-मात्र, क्या तेरा ?
पर आज अन्य-सा हुआ वत्स भी मेरा।
थूके, मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,
जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों चुके ?
छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे,
रे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे ?

कहते आते थे यही अभी नरदेही,
'माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही।'
अब कहें सभी यह हाय ! विरुद्ध विधाता,
'है पुत्र पुत्र ही, रहे कुमाता माता। '

बस मैंने इसका बाह्य-मात्र ही देखा,
दृढ हृदय न देखा, मृदुल गात्र ही देखा,
परमार्थ न देखा, पूर्ण स्वार्थ ही साधा,
इस कारन ही तो हाय आज यह बाधा !

युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी-
'रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी।'
निज जन्म जन्म में सुने जिव यह मेरा-
धिक्कार ! उसे था महा स्वार्थ ने घेरा।'-"
सौ बार धन्य वह एक लाल की माई,
जिस, जननी ने है जना भरत-सा भाई।'

पगली-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई-
'सौ बार धन्य वह एक लाल  की माई। "
'हा ! लाल ? उसे भी आज  गवायाँ  मैंने,
विकराल कुयश ही यहाँ कमाया मैंने।
निज स्वर्ग उसी पर वार दिया था मैंने,
हर तुम तक से अधिकार लिया था मैंने।

 पर वही आज यह दीन हुआ रोता है,
शंकित सबसे घृत हरिण-तुल्य होता है,
श्रीखण्ड आज अंगार-चण्ड है मेरा,
तो इससे बढ़कर कौन दण्ड है मेरा ?

पटके मैंने पद-पाणि मोह के नद में,
जन क्या-क्या करते नहीं स्वप्न में, मद में ?
हा  ! दण्ड कौन, क्या उसे डरूंगी अब भी ?
मेरा विचार कुछ दयापूर्ण हो तब भी।

हा ! दया ! हन्त  वह घृणा ! अहह  वह करुणा !
वैतरणी सी हैं आज जान्हवी-वरुणा !
सह सकती हूँ चिर नरक, सुनें सुविचारी,
पर मुझे स्वर्ग की दया दण्ड से भारी |


लेकर अपना यह कुलिश-कठोर कलेजा,
मैंने इसके ही लिए तुम्हें वन भेजा। 
घर चलो इसी के लिए, न रूठो अब यों,
कुछ कहूँ तो  उसे सुनेंगे सब क्यों ?

मुझको यह प्यारा और इसे तुम प्यारे,
मेरे दुगुने प्रिय रहो न मुझसे न्यारे। 
मैं इसे न जानूँ, किन्तु जानते हो तुम
अपने से पहले इसे मानते हो तुम। 

तुम भ्राताओं का प्रेम परस्पर जैसा,
यदि वह सब पर यों प्रकट हुआ है वैसा,
तो पाप-दोष भी  पुण्य-तोष है मेरा,
मैं रहूँ पंकिला, पद्म-कोष है मेरा। 
आगत ज्ञानीजन  उच्च भाल से लेकर,
समझावें तुमको अतुल युक्तियाँ  देकर। 
मेरे तो एक अधीर हृदय है बेटा,
उसने फिर तुमको आज भुजा भर भेटा। 

-साकेत "राष्ट्रकवि" मैथिलीशरण गुप्त 

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1 Comments

  1. अभीप्सित इस शब्द का उच्चारण करना मुश्किल हो रहा है,क्या यह शब्द ठीक है? या कोई टंकण-त्रुटि है। "रोटी थी नीरव सभा हृदय थपकाती" इस पंक्ति में रोटी के स्थान पर रोती होगा,कृपया सुधार लें। आपकी वेबसाइट से बहुत लाभ मिला है,आगे भी मिलता रहेगा,यही अपेक्षा है।धन्यवाद

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